अगर कोई कंपनी शेयर मार्किट में किसी भी स्टॉक एक्सचेंज से नियमित रूप से हटा दी जाती हे। तो उसे डीलिस्ट होना कहते हे। कंपनी खुद भी चाहे तो डिसिस्ट हो सकती हे। और अगर सेबी भी चाहे तो किसी भी कंपनी को डीलिस्ट करावा सकती हे।
नमस्ते दोस्तों। आज हम देखेंगे की dilisting kya hota he ?, शेयर मार्किट में अगर कोई कंपनी को प्रस्तावित होना हे। तो वो अपने आईपीओ ( ipo ) को लाती हे। वैसे ही अगर कंपनी को शेयर मार्किट से बाहर जाना हे ,या शेयर मार्किट से हटाना हे। तो वो अपनी कंपनी को डीलिस्ट करवाती हे।
अगर आपकोIpo kya hota he ?के बारे में पता नहीं हे तो आप हमारा पिछले पोस्ट पढ़ सकते हे। उसेमें हमने आईपीओ के बारे में पूरी विस्तार से जानकारी दी हे। अगर आपको पोस्ट अच्छी लगे तो उसे अपने फॅमिली या दोस्तों के साथ शेयर जरूर करना।
इस पोस्ट में हम जानेंगे की डीलिस्टिंग क्या होती हे। उसके कोण कोनसे प्रकार हे ? और कंपनी डीलिस्ट होने से शेयर होल्डर पर क्या असर हो सकता हे ?और कंपनी डीलिस्ट होने के बाद क्या फिर से शेयर मार्किट में लिस्ट हो सकती हे ? इन सब के बारे मे हम आज इस पोस्ट में समझेंगे।
dilisting kya hota he
what is delisting ?
डिलिस्टिंग क्या होता हे?
अगर कंपनी किसी कारन से स्टॉक एक्सचेंज से हटा दी जाती हे। उसे डिलिस्टिंग कहते हे। कंपनी डीलिस्ट किसी भी कारन से हो सकती हे। जैसे कंपनी खुद भी डीलिस्ट करावा सकती हे। या फिर SEBI ( securities and exchange board of india ) कंपनी को डीलिस्ट करावा सकती हे ? और कंपनी डीलिस्ट होने के बाद आप उस कंपनी के शेयर को स्टॉक एक्सचेंज में खरीद या बेच नहीं सकते।
डीलिस्ट के प्रकार
- valuentary dilisting
- involuntery dilisting
१.valuentery dilisting
स्वैच्छिक डिलिस्टिंग
अगर कंपनी स्वईच्छासे खुद को डीलिस्ट करवाती हे तो उसे स्वैच्छिक डिलिस्टिंग ( valuentery dilisting ) कहते हे । स्वैछिक डिलिस्टिंग के होने के कई सारे कारन हो सकते हे। जैसे की कंपनी अपना निजीकरण करवाना चाहती हो। या फिर प्रमोटर अपनी कंपनी को दूसरे कंपनी के साथ जोड़ना चाहती हो।
कंपनी का कोई भी कारन हो डीलिस्ट होने का लेकिन कंपनी को तो सेबी के नियमो का पालन करके ही डीलिस्ट करवाना पड़ता हे। और डिलिस्टिंग होने के लिए कंपनी को अपना परसेंटेज ९० परसेंट से ज्यादा करना पड़ता हे।
२.involuntary delisting
अनैच्छिक रूप से हटाना
involuntary डिलिस्टिंग के बहुतसे करण हो सकते हे। जैसे की सेबी द्वारा निर्धारित गाइडलाइन्स (दिशानिर्देश ) का पालन न करना। फाइनेंसियल स्टेट्स और रिपोर्ट्स को लेट से फाइल करना। बैंक्राफ़्ट हो जाना। एनुअल लिस्टिंग फी न देना। ऐसे बहुतसे कारने के लिए सेबी कंपनी को डिलिस्टिंग करावा सकती हे।
लेकिन सेबी किसी भी कंपनी को डायरेक्ट डीलिस्ट नहीं करवाती। अगर कंपनी सेबी के नियमो का पालन नहीं करती हे। तो सेबी कंपनी को वार्निंग लेटर इशू करती हे। फिर भी कंपनी सेबी के नियमो को तोड़ती हे। तो सेबी कंपनी के उपर फाइन लगाती हे। और अगर फिर भी कंपनी अपनी गलतियों को दोहराती हे। तो सेबी उस कंपनी के ट्रेडिंग को कुछ दिन के लिए बंद (Ban ) करावा देती हे। और अगर कंपनी तब भी न माने तो तब जाके सेबी कंपनी को डीलिस्ट करती हे।
शेयर होल्डर पर क्या असर होता हे ?
अगर कंपनी अपनी स्वईच्छासे डीलिस्ट होती हे। तो कंपनी अपना बायबॅक लाती हे। मतलब प्रोमोटर अपने शेयर को शेयर होल्डर्स से खरीदते हे। ताकि प्रोमोटर अपना पर्सेंटेज ९० परसेंटेज से ऊपर कर सके। और ये बायबैक reverse book building के मार्फ़त होता हे। इसमे शेयर होल्डर्स को अपने शेयर टेंडर करने पड़ते हे। और तय करना पड़ता हे की वो किस कीमत पर शेयर को टेंडर करना चाहते हे।
शेयर अगर किस कीमत पे ज्यादा टेंडर हुए हे। ये देखकर प्रोमोटर बायबैक के लिए वो कीमत को तय करता हे। शेयर को उस कीमत पे टेंडर करवाना हे। या न करवाना ये प्रोमोटर के ऊपर होता हे। और प्रोमोटर को बायबैक की कीमत ठीक न लगे तो वो बायबैक को रद्द करावा सकता हे।
और किसी शेयर होल्डर ने बायबैक शेयर नहीं बेचे। तो उसे एक साल का वक्त दिया जाता हे। शेयर को बायबैक की कीमत पर बेच दे।और अगर शेयर होल्डर ने एक साल में भी अपने शेयर नहीं बेचे। तो उसके पास वो शेयर डीमेट खाते में ही रहते हे। लेकिन उसको को स्टॉक एक्सचेंज में बेच नहीं सकता।उसे वो शेयर्स OTC मार्किट में ( over the counter ) बेचने होते हे।
otc मार्किट में शेयर को बेचना बहुतही कठिन हो जाता हे। क्युकी otc में शेयर को बेचने के लिए शेयर होल्डर को बायर (शेयर खरीदनेवाला ) ढूंढना पड़ता हे। कीमत निच्छित करनी पड़ती हे। सारी प्रक्रिया को खुद ही करना पड़ता हे।
involuntary डिलिस्टिंग में शेयर होल्डर को ज्यादा तर नुकसान ही होता हे। क्युकी involuntary डिलिस्टिंग के बाद न तो शेयर को आप स्टॉक एक्सचेंज में बेच सकते हे। और नाही उन शेयर्स को otc मार्किट में कोई खरीदता हे। तो ज्यादातर involuntary डिलिस्टिंग में शेयर डीमेट खाते में पड़े रहते हे।
कंपनी डिलस्टिंग होने के बाद क्या फिरसे मार्किट में लिस्ट हो सकती हे ?
अगर कंपनी ने स्वैइच्छासे डिलिस्टिंग हुयी हे। तो कंपनी मार्किट में फिरसे लिस्ट हो सकती हे। लेकिन उसे सेबी के गाइडलाइन्स का पालन कारना पड़ता हे। और कंपनी को लिस्ट होने के लिए अगले पांच साल रुकना पड़ता हे। और अगर कंपनी अनैच्छिक रूप से डिलिस्टिंग हुयी हे तो कंपनी को अगले दस साल रुकना पड़ता हे।और फिर दस साल के बाद कंपनी मार्किट में लिस्ट हो सकती हे।
निष्कर्ष
अगर आपका किसी कंपनी में इन्वेस्ट हे। और वो कंपनी डिलिस्टिंग होने वाली हे तो ,समय रहते बायबैक में शेयर को टेंडर करदो। या फिर एक साल की मदत में शेयर को बेच तो। क्युकी otc में शेयर को कोई नहीं खरीदता।
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